18 Yogas Described in Gita: गीता में वर्णित हैं 18 योग, इनके जर‍िए ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को द‍िया था ज्ञान

18 Yogas Described in Gita
18 Yogas Described in Gita

18 Yogas Described in Geeta: हिन्दू धर्म में भगवद गीता को सबसे पवित्र ग्रंथों में से एक माना जाता है। महाभारत युद्ध आरम्भ होने के ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया वह श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण के उन उपदेशों का वर्णन है, जो उन्होंने महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन को दिया था। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं, जिनमें धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्म करने की शिक्षा दी गई है। शास्त्रों के अनुसार, भगवद गीता में मनुष्य को अपनी हर समस्या का हल मिल सकता है।

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अर्जुनविषादयोग

इसका अर्थ है-कालांतर में जब अर्जुन के मन में भी भय और निराशा पैदा हो गया था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता उपदेश देकर उनका मार्ग प्रशस्त किया।

सांख्य योग

इसका अर्थ है-पुरुष प्रकृति की विवेचना अथवा पुरुष तत्व का विश्लेषण करना है। जब व्यक्ति किसी अवसाद से गुजरता है तो उसे सांख्य योग अर्थात पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए।

ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग 18 Yogas Described in Gita

भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है। इस बंधन से कोई मुक्त नहीं हो सकता है, अपितु भगवान भी कर्म बंधन के पाश में बंधे हैं। सूर्य और चंद्रमा अपने कर्म मार्ग पर निरंतर प्रशस्त हैं। अतः तुम्हें भी कर्मशील बनना चाहिए।

ज्ञान योग

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञान से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं है। इससे न केवल अमृत की प्राप्ति होती है, बल्कि व्यक्ति कर्म बंधनों में रहकर भी भौतिक संसर्ग से विमुक्त रहता है।

कर्मसंन्यास योग

कर्मसंन्यास योग नामक में फिर वे ही युक्तियाँ और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है कि ऊँचे धरातल पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है।

आत्मसंयम योग 18 Yogas Described in Gita

आत्मसंयम योग है जिसका विषय नाम से ही प्रकट है। जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम-यही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।

कर्म वैराग्य योग

यह योग बताता है कि व्यक्ति को कर्म के फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। अपितु कर्मशील रहना चाहिए। ईश्वर बुरे कर्मों का बुरा फल और अच्छे कर्मों का अच्छा फल देते हैं।

ध्यान योग

इस योग की महत्ता आधुनिक समय में सबसे अधिक है। इसे करने से मन और मस्तिष्क दोनों ही विचलित नहीं होता है।

ज्ञानविज्ञान योग

इस योग में व्यक्ति को सत्य मार्ग पर अविचल भाव से चलते रहना है। इसमें सत्य अर्थात ज्ञान की खोज की जाती है। इसमें साधक को तपस्वी बनना पड़ता है।

अक्षर ब्रह्म योग

गीता के आठवें अध्याय में भगवान मधुसूदन ने अर्जुन को ब्रह्मा, अधिदेव, अध्यात्म और आत्म संयमी के बारे में बताया है। व्यक्ति को भौतिक जीवन का निर्वाह शून्य में स्थित रहकर करना चाहिए। इस योग के साधक भक्ति काल में निर्गुण विचारधारा के थे।

राज विद्या गुह्य योग/ राजगुह्ययोग

इस योग में स्थिर रहकर व्यक्ति परम ब्रह्म के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान को हासिल करने की कोशिश करता है। व्यक्ति को परम ज्ञान प्राप्ति के लिए राज विद्या गुह्य योग करना चाहिए।

विभूति विस्तारा योग/ विभूतियोग

इस योग में साधक परम ब्रह्म के सानिध्य ध्यान केंद्रित कर ईश्वर मार्ग पर प्रशस्त रहता है।

विश्वरूप दर्शन योग/ विश्वरूपदर्शन योग

इस योग को परम और अनंत माना गया है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान ने यह विराट रूप योग के माध्यम से प्राप्त की है।

भक्ति योग भक्ति योग 18 Yogas Described in Gita

यह योग ईश्वर प्राप्ति के लिए सबसे सर्वश्रेष्ठ योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में विस्तार से इसका वर्णन किया है कि कैसे कोई भक्ति के माध्यम से भगवद्धाम प्राप्त कर सकता है।

क्षेत्र विभाग योग

इस योग के माध्यम से साधक आत्मा, परमात्मा और ज्ञान को जान पाता है। इस योग में रमने वाले साधक योगी कहलाते हैं।

गुणत्रय विभाग योग

यह विषय समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएँ हैं। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है।

पुरुषोत्तमयोग

इसमें विश्व का अश्वत्थ के रूप में वर्णन किया गया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तारवाला है। देश और काल में इसका कोई अंत नहीं है। किंतु इसका जो मूल या केंद्र है, जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है।

दैवासुर संपद विभाग योग

आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत।

श्रद्धात्रय विभाग योग

इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं।

मोक्षसंन्यास योग

इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। यहाँ पुन: बलपूर्वक मानव जीवन के लिए तीन गुणों का महत्व कहा गया है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो।

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